आज पूरे विश्व में कई महिलाएं पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं। अपनी लगन और मेहनत से उन्होंने अपने देश का नाम रोशन किया है। आपने ऐसी कई महिलाओं के सफलता की कहानियां सुनी होगी लेकिन आज मै आपको ऐसी महिला के बारे बताने जा रहा हु जिसकी 12 साल की उम्र में शादी कर दी गई। जिसके बाद ससुराल में भी बुरे बर्ताव और मारपीट का सामना करना पड़ा। पतीने बड़ी निर्दयता से धक्के मारकर बाहर निकाला। उसके बाद इस महिला का नया जन्म हुआ और "बेसहारा, अनाथ बच्चों की देखभाल को ही अपना उद्देश्य बनाया। आज इस महिला को "अनाथों की माई" नाम से जाना जाता हैं। तो आइये जानते है 'सिंधुताई सपकाल' के संघर्षमय जीवन की कहानी। (Sindhutai Sapkal)
सिंधुताई सपकाल का नाम आज पूरे विश्व में विख्यात है। अनाथों की माँ कहीं जानेवाली सिंधुताईने सेवा कार्य से अपनी पहचान गढ़ी है।
प्रारंभिक जीवन
भारत की आजादी के एक साल बाद महाराष्ट्र में वर्धा जिले के पिंपरी मेघे नामक गांव में सिंधुताई का जन्म हुआ। परिवारने इस अनचाही बच्ची का नाम 'चिंधी' रखा। सिंधुताई के पिता अभिमान साठे अपनी पत्नी के विरोध के बावजूद उनकी शिक्षा को लेकर सजग थे। लेकिन ४ कक्षा तक पढ़ने के बाद मात्र 12 वर्ष की आयु में सिंधुताई की शादी उनसे काफी उम्रदराज़ श्रीहरी सपकाल से कर दी गयी। सिंधुताई केवल 20 उम्र में 3 बच्चों को माँ बन चुकी थी।
प्रताड़ना और संघर्ष
सिंधुताई चौथी बार गर्भवती थीं। तब उनके पतीने बड़ी ही निर्दयता के साथ धक्के मारकर उन्हें घर से बाहर कर दिया। उस वक्त वो नौ माह की गर्भवती थी। दमडाजी आसटकर मक जमींदार के कारण सिंधुताई को बेघर होना पड़ा।
दरअसल उन्होंने आपने गांव में गाय का गोबर उठानेवाली महिलाओं के मेहनताने के लिए आवाज उठायी थी। जिसका वाजिब असर हुआ और जिलाधिकारी ने इसका संज्ञान लिया और महिलाओं को उनका हक मिला। लेकिन महिलाओं के इस काम के बदले में दमडाजी को वनविभाग से जो पैसा मिलता था, वो बंद हो गया। जिस कारण उसने सिंधुताई के गर्भ में अपना बच्चा होने का दुष्प्रचार किया, जिससे उनको पति और गांववालों के रोष का भाजन बनना पड़ा।
प्रसव के दर्द से कराहती
सिंधुताईने गाय के बाड़े में (तबेला) अपनी बच्ची को जन्म दिया। और वें कई कार्यक्रमों में बताती हैं कि अपनी गर्भनाल को उन्होंने 16 बार पत्थर मारकर तोडा था। उसके बाद अपनी नवजात बेटी को लेकर सिंधुताई दरदर भटकी लेकिन किसी ने उन्हें आसरा नहीं दिया, यहाँ तक की उनकी अपनी माँ ने भी घर के केवाड़ बंद कर दिए। उसके बाद सिंधुताई ने शमशान में शरण ली। वहां जलती हुयी लाश की अग्नि पर वहीं क्रियाकर्म के लिए रखे आटे की रोटियाँ सेंककर माँ, बेटीने अपनी क्षुधा मिटाई। और फिर सिंधुताई कभी ट्रेन में, कभी और कहीं भिक्षा मांगकर गुजारा करने लगी। इस दौरान उन्हें कई अनाथ और बेसहारा बच्चे मिले जिनके लिए सिंधुताई के मन में ममता जागी।
नया 'जन्म', नया सफर
इस तरह सिंधुताई का नया जन्म हुआ। उन्होंने बेसहारा, अनाथ बच्चों की देखभाल को ही अपना उद्देश्य बनाया। वो जगह जगह जातीं, बच्चो के लिए खाना एवं अन्य मदत जुटातीं। पहले तो समाज ने उन्हें दुत्कारा लेकिन धीरे धीरे उनके इस नेक कार्य को लोग स्वेच्छा से मदत करने लगे।हालाँकि यह सफर काफी कठीनाईयाँ से भरा, काँटोंभरी राहों का था। इस कार्य के लिए सिंधुताईने अपनी बेटी ममता को भी खुद से दूर कर दिया। उसे श्रीमंत दगडुशेठ हलवाई गणपति ट्रस्ट को सौंपकर वों सैकड़ों बच्चों की 'माई' बन गयी। आज 72 वर्ष की उम्र में भी सिंधुताई का ये सफर उसी उत्साह और ममत्वभाव से जारी है।
उन्होंने करीब 1050 अनाथ बच्चों का पालनपोषण किया है, उन्हें पढ़ा - लिखाकर काबिल बनाया है। इनमें से कई लोग आज खुद अनाथाश्रम चलाते हैं। पुणे जिले के मांजरी में सिंधुताई के अनाथाश्रम की ईमारत है।
पुरस्कार और सम्मान
सिंधुताई को उनके अद्भुत कार्य के लिए करीब ७५० से अधिक राष्ट्रिय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया है। इसमें अहिल्याबाई होळकर पुरस्कर (महाराष्ट्र राज्य), राष्ट्रीय पुरस्कार "आयकौनिक मदर", सह्याद्रि हिरकणी पुरस्कार, रियल हिरोज पुरस्कार (रिलायन्स) जैसे कई सम्मान शामिल है। सिंधुताई के जीवनी पर आधारित मराठी फिल्म 'मी सिंधुताई सपकाळ' (साल -2010) में उनकी संघर्षयात्रा एवं सेवाकार्य को प्रभावी रूप से पर्देपर उतारा गया है। इस फिल्म में सिंधुताई की भूमिका शिद्दत से निभाने के लिए अभिनेत्री तेजस्विनी पंडित को राष्ट्रिय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था फिल्म का निर्देशन जानेमाने फ़िल्मकार अनंत महादेवनने किया था।
संदेश एवं प्रेरणा
सिंधुताई अपने संदेश में कहती हैं कि, स्वार्थ के लिए तो सभी जीते हैं, थोड़ा दूसरों के वास्ते भी जियो। युवाओं को सिंधुताई बताती हैं, अपनी पढाई लिखाई का दूसरों के कल्याण में, राष्ट्रहित में इस्तेमाल करो। माता-पिता को अकेले न छोड़ने का आवाहन भी वों करती हैं। सिंधुताई सचमुच ममता का सिंधु (सागर) हैं। उनके चेहरेपर बिखरे तेज से यह स्पष्ट होता है कि, जीवन में सच्चे सुख की प्राप्ति धन से नहीं 'परोपकार' से होती है, सत्कर्मों से होती है।
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